@IM UR LOVER: Re# 220208-18
चलिए, अब हमारे बदनाम नेताओं की बात करते हैं। हां, कुर्सी पर बैठने के कुछ ही सालों में उनकी संपत्ति बढ़कर कई गुना हो जाती है और उनमें से अधिकांश राजनीति को महज कमाई का जरिया मानते हैं, लेकिन इतने नेताओं के बीच कोई एक नेता वह भी तो है, जो अपने क्षेत्र की बेहतरी के लिए अथक प्रयास करता है।
हां, निर्वाचन प्रक्रिया में धन की भूमिका कम करने के लिए हमें चुनाव सुधारों की सख्त दरकार है, लेकिन अगर चुनावों में सफलता का एकमात्र पैमाना धन-संपदा...
more... ही होता तो आज हमारे 544 सांसदों में से 315 वे होते, जिन्हें अधिकृत रूप से करोड़पति घोषित किया गया है। कई निर्वाचित जनप्रतिनिधि दूसरी बार चुनाव जीतने में नाकाम हो रहे हैं। यह तथ्य हमारे लिए संतोषप्रद हो सकता है कि देश के मतदाता प्रभावी रूप से अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने को तैयार हैं।
कानून-व्यवस्था पर भी एक नजर डालते हैं। हां, निम्नतर न्यायपालिका चिंतनीय स्थिति में है और लंबित मामलों के पुलिंदों से निजात पाने के लिए हमें अधिक न्यायाधीशों की जरूरत है। और हां, हमें पुलिस सुधारों की भी शिद्दत से दरकार है। लेकिन क्या हमें इस बात पर खुशी नहीं जतानी चाहिए कि लाखों भारतीयों का कानून पर भरोसा आज भी बरकरार है और वे आज भी सड़क पर लड़ने के बजाय अदालत में मुकदमा लड़ने को प्राथमिकता देते हैं? ऐसे न्यायाधीश भी बहुतेरे हैं, जिन्होंने समाज के वंचित तबके के हितों की रक्षा करने के लिए अद्भुत तत्परता और क्षमता का परिचय दिया है।
मीडिया पर भी हाल के दिनों में पक्षपात, सनसनीवाद, पेड न्यूज और इससे भी बुरे आरोप लगे हैं। हां, मीडिया में कुछ लोग ऐसे जरूर हैं, जिन्होंने अपने नैतिक दिशासूचक गंवा दिए हैं, लेकिन हमें यह भी संतोष होना चाहिए कि मीडिया अब भी एक सामाजिक प्रहरी की भूमिका निभा रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो पिछले दिनों उजागर हुए इतने घपले और घोटाले नजरअंदाज कर दिए गए होते।
यकीनन, निराश होने के कई कारण हैं।
एक तरफ किसान आत्महत्या कर रहे हैं और लोग भूखे सोने को मजबूर हैं तो दूसरी तरफ खुले में अनाज सड़ रहा है। लेकिन यहां इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आठ फीसदी विकास दर ने गरीबी के दायरे से बाहर निकलने में लाखों लोगों की मदद भी की है। नक्सलवाद अब भी एक समस्या बना हुआ है और कश्मीर का ऐतिहासिक घाव अब नासूर बनता जा रहा है। लेकिन नक्सली अपने राज्यविरोधी मंसूबे पूरे कर पाने में अब भी नाकाम हैं, वहीं कश्मीरी अलगाववादियों से संवाद प्रक्रियाएं बताती हैं कि हम जहां ठोस रुख अख्तियार करना जानते हैं, वहीं हमें समन्वय की राह चलना भी आता है।
लेकिन स्वतंत्र भारत का वास्तविक गौरव उसके लोगों में यानी हम सबमें है। एक उपमहाद्वीप के आकार वाले इस विशाल देश के लिए पिछले 64 सालों में अपनी राह गंवा देना और जाति, धर्म, समुदाय के विभाजनों से परास्त हो जाना बहुत आसान होता। विभाजन अब भी हैं और कई मौकों पर वे भयानक हिंसा का कारण भी बने हैं, लेकिन घृणा और कट्टरता की हर घटना के साथ ही इस देश में सहअस्तित्व और सौहार्द की भी मार्मिक कहानियां हैं।
भारत की यात्रा करें तो इस सफर में आपका परिचय कई वास्तविक नायक-नायिकाओं से होगा, जिन्होंने एक साधारण जीवन बिताते हुए देश के लिए असाधारण योगदान दिया है। आरके लक्ष्मण के ‘आम आदमी’ की ही तरह वे नामहीन हो सकते हैं, लेकिन आने वाली पीढ़ी के लिए एक बेहतर भारत के विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
पुनश्च: ठीक है, हम बहुत जल्द ही अपनी नंबर वन टेस्ट क्रिकेट रैंकिंग गंवा सकते हैं और इससे देशव्यापी निराशा में और इजाफा होगा। लेकिन विश्व चैंपियन कहलाने का अधिकार हमसे कोई नहीं छीन सकता। आखिरकार जैसा कि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में कहा है, हम एक ‘फिफ्टी-फिफ्टी नेशन’ हैं। तो इस स्वतंत्रता दिवस पर हमें अपनी गलतियों पर अफसोस करने के बजाय अपनी कामयाबियों का जश्न क्यों नहीं मनाना चाहिए?